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प्रारब्ध पहिनें बनै / रामधारी सिंह 'काव्यतीर्थ'

प्रारब्ध पहिनें बनै, पीछू बनै शरीर
ई तेॅ बड़ोॅ आश्चर्य छै, मन नैं बाँधै धीर।

करलोॅ करम तेॅ आपनोॅ भोगेॅ पड़थौं जरूर
करोड़ कल्प कैन्हें नी बीतेॅ, ऊ नै टलथौं हुजूर।

सोयवाला कलिकाल छेकै, निद्रात्यागी द्वापर
खड़ा होय गेलै ऊ त्रेता, कृतयुग श्रम करै पर तत्पर।

जहाँ मूर्ख सम्मान नैं पावै, अन्न-धन सें भरलोॅ रहै
कलह नै हुऐ पति-पत्नी में, तहाँ लक्ष्मी स्वयं वास करै।

बहुयोजन फैललोॅ पाप भी, ध्यान योगोॅ सें नष्ट होय जाय
दोसरोॅ कोनो उपाय सें भी, ओकरोॅ नाश नैं होय पाय।