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प्रिज़्म / ऋषभ देव शर्मा

देखो!
सारे रंग
तुम्ही में से तो निकलते हैं
और फिर
तुम्ही में समा जाते हैं|
क्या फर्क पड़ता हैं
तुमने
कोई रंग छुआ या नहीं|

तुम तो
स्नेह,सौंदर्य और समर्पण का
वह प्रिज़्म हो
जिससे गुजरकर
सूरज की सन्यासी किरण
उल्लास के इंद्र्धनुष में
बदल जाती हैं|

सच!
मेरी हस्तरेखाओं में जड़ा
सच! मेरी हस्तरेखाओं में जड़ा
यह दिव्य प्रिज़्म
अलौकिक स्मृति चिह्न है
पुरूष और प्रकृति के
पहले पहले प्यार का!