शब्द अपने रूप में डूबे हैं
ठहरी हुई है
एक ही मुस्कान
आँखों की कोर पर ठहरा है
एक ही आँसू
कितने कंकर फेंके
डोल गए
सूर्य-चन्द्र-तारे सब
वन-पर्वत
पानी हिला-हिला कर हार गए
मिटती नहीं महाछवि
फिर वही
मछली तैरने लगती है
शान्त
नीले जल में
अपना रूप निहार रही है प्रिया