प्रिये! तुम्हारी विरह-वेदना / हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रिये! तुम्हारी विरह-वेदना मुझे सताती है भारी।
पल-पलमें पीड़ा है बढ़ती, सुध-बुध मिट जाती सारी॥
सोते-जगते सभी समय है मीठी याद बनी रहती।
बुद्धि-चिा सब इन्द्रियगण हैं तुमसे सदा सनी रहती॥
तो भी तुम्हें देखनेको नित व्याकुल रहता मेरा मन।
आँखें अकुलाती रहतीं, नित परसनको ललचाता तन॥
अधरामृत दे मधुर प्रियतमे! मुझको सुखी करोगी कब ?
आठों याम तरसते हैं ये प्राण, न कल पड़ती पल अब॥
मोर-मुकुट, मुरली, माखन, मधुसे अब मेरा मन भगता।
बिना तुम्हारे नन्द-भवनका सुख सारा खारा लगता॥
वंशीवट, कालिन्दीका तट, शरद-रैन सब लगते घोर।
मचला मन है, कहीं न टिकता, पाता नहीं कहीं भी ठौर॥
मान त्यागकर मुझे हृदयसे कब चिपटा‌ओगी अब तुम।
चरण-धूलि अपनी पावन दे, कब सुख सरसा‌ओगी तुम॥
कृपा करो इस तुच्छ दासपर अब प्यारी राधारानी।
सुखी करो अब मुझे सुना निज अमृत-मधुर रसयुत बानी॥

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