प्रिये! सुधियों की तुम्हारे पूर्णमासी
नित्य ही मन-गगन में भरती अँजोरी।
पूर्णिमा है आज जग के संवतों में
और मन-नभ में उदित सुधि-चन्द्र है री!
आस की है चाँदनी छाई गगन में-
रच रहा मन मधु-मिलन के छंद है री!
मान रखना बात का, मत तोड़ देना,
नर्म भावों से बनी यह प्रेम-डोरी।
ये निशा बीते कदाचित् इसी धुन में,
ढूढ़ते मुझको, उभय का प्रिय सितारा।
आस में उर-गेह में मेरे सुगेही!
आगमन होगा न जाने कब तुम्हारा।
कुछ तुम्हारे चित्र लेकर कुछ स्वयं के-
कर रहा हूँ एकचित्रित चोरी'-चोरी।
शुभ-निशा की शुभ-प्रतीक्षा में युगल-मन
एक दूजे के हृदय में बस रहे हैं।
एक दूजे के लिए ही हों बने ज्यों,
बात से यों घोल वे मधु रस रहे हैं।
" रात्रि लगभग पूर्ण होने को चली है,
एक होने का मुझे अब वचन दो री! "