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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - २

दिनेशजा दूषित-वारि-पान से।
विडम्बना थी यह हो गई यत:।
अत: इसी काल यथार्थ-रूप से।
ब्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का॥21॥

स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा।
विगर्हणा देख मनुष्य-मात्रा की।
विचार के प्राणि-समूह-कष्ट को।
हुए समुत्तोजित वीर-केशरी॥22॥

हितैषणा से निज-जन्म-भूमि की।
अपार-आवेश हुआ ब्रजेश को।
बनीं महा बंक गँठी हुई भवें।
नितान्त-विस्फारित नेत्र हो गये॥23॥

इसी घड़ी निश्चित श्याम-ने किया।
सशंकता त्याग अशंक-चित्त से।
अवश्य निर्वासन ही विधेय है।
भुजंग का भानु-कुमारिकांक से॥24॥

अत: करूँगा यह कार्य्य मैं स्वयं।
स्व-हस्त मैं दुर्लभ प्राण को लिये।
स्व-जाति औ जन्म-धरा निमित्त मैं।
न भीत हूँगा विकराल-व्याल से॥25॥

सदा करूँगा अपमृत्यु सामना।
स-भीत हूँगा न सुरेन्द्र-वज्र से।
कभी करूँगा अवहेलना न मैं।
प्रधान-धार्माङ्ग-परोपकार की॥26॥

प्रवाह होते तक शेष श्वास के।
स-रक्त होते तक एक भी शिरा।
स-शक्त होते तक एक लोम के।
किया करूँगा हित सर्वभूत का॥27॥

निदान न्यारे-पण सूत्र में बँधे।
ब्रजेन्दु आये दिन दूसरे यहीं।
दिनेश-आभा इस काल भूमि को।
बना रही थी महती-प्रभावती॥28॥

मनोज्ञ था काल द्वितीय याम था।
प्रसन्न था व्योम दिशा प्रफुल्ल थी।
उमंगिता थी सित-ज्योति-संकुला।
तरंग-माला-मय-भानु-नन्दिनी॥29॥

विलोक सानन्द सु-व्योम मेदिनी।
खिले हुए-पंकज पुष्पिता लता।
अतीव-उल्लासित हो स्व-वेणु ले।
कदम्ब के ऊपर श्याम जा चढ़े॥30॥

कँपा सु-शाखा बहु पुष्प को गिरा।
पुन: पड़े कूद प्रसिध्द कुण्ड में।
हुआ समुद्भिन्न प्रवाह वारि का।
प्रकम्प-कारी रव व्योम में उठा॥31॥

अपार-कोलाहल ग्राम में मचा।
विषाद फैला ब्रज सद्म-सद्म में।
ब्रजेश हो व्यस्त-समस्त दौड़ते।
खड़े हुए आ कर उक्त कुण्ड पै॥32॥

असंख्य-प्राणी ब्रज-भूप साथ ही।
स-वेग आये दृग-वारि मोचते।
ब्रजांगना साथ लिये सहस्रश:।
बिसूरती आ पहुँचीं ब्रजेश्वरी॥33॥

द्वि-दंड में ही जनता-समूह से।
तमारिजा का तट पूर्ण हो गया।
प्रकम्पिता हो बन मेदिनी उठी।
विषादितों के बहु-आर्त-नाद से॥34॥

कभी-कभी क्रन्दन-घोर-नाद को।
विभेद होती श्रुति-गोचरा रही।
महा-सुरीली-ध्वनि श्याम-वेणु की।
प्रदायिनी शान्ति विषाद-मर्दिनी॥35॥

व्यतीत यों ही घड़ियाँ कई हुईं।
पुन: स-हिल्लोल हुई पतंगजा।
प्रवाह उद्भेदित अंत में हुआ।
दिखा महा अद्भुत-दृश्य सामने॥36॥

कई फनों का अति ही भयावना।
महा-कदाकार अश्वेत शैल सा।
बड़ा-बली एक फणीश अंक से।
कलिन्दजा के कढ़ता दिखा पड़ा॥37॥

विभीषणाकार-प्रचण्ड-पन्नगी।
कई बड़े-पन्नग, नाग साथ ही।
विदार के वक्ष विषाक्त-कुण्ड का।
प्रमत्त से थे कढ़ते शनै: शनै:॥38॥

फणीश शीशोपरि राजती रही।
सु-मूर्ति शोभा-मय श्री मुकुन्द की।
विकीर्णकारी कल-ज्योति-चक्षु थे।
अतीव-उत्फुल्ल मुखारविन्द था॥39॥

विचित्र थी शीश किरीट की प्रभा।
कसी हुई थी कटि में सु-काछनी।
दुकूल से शोभित कान्त कन्धा था।
विलम्बिता थी वन-माल कण्ठ में॥40॥