ध्वनि, भैरवी, कहरवा 29.6.1974
प्रीतम-प्रान-पोसिनी राधे! सदा तिहारी जय-जयकार।
प्रीति-रीति की प्रतिमा हो तुम, निज प्रियत्तम की प्रानाधार॥
राधे! तुव मुख-चन्द्रके मोहन चारु चकोर।
तुम हूँ प्रीतम के बिना लखहु न दूजी ओर॥
तुम दो उनके प्रीति-लेसकों ललकत मेरो उर अनिवार<ref>बेरोक-टोक, निरन्तर</ref>!
स्वामिनि! मेरे हृदय की पुनि-पुनि यही पुकार।
जुगल - चरनकी चाकरी बने हियेको हार॥
जुगल-प्रीति-रस की कलिका ही मो जीवन को होय अधार॥2॥
राधे! तुव पद-कंज को भृंग सदा यह चित्त।
रसि-रसि तिन को प्रीति-रस रहत सदा उन्मत॥
तव रति-रस-वस रहै न ताकों निज की निजता हूँ को भार॥3॥
निजकी निजता त्यागि सो, रति सों होय अभिन्न।
तव रति ही मो मति बने, रहे न भिन्न न खिन्न॥
या विधि तुव पद-रति हो राधे! हो मेरे जीवन को सार॥4॥
शब्दार्थ
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