- कवित्त
- कवित्त
प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ
कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।
तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार
सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।
चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो
सुजान रूप-बावरो, बदन दरसायहौ।
बिरह नसाय, दया हिय मैं बसाय, आय
हाय ! कब आनँद को घन बरसायहौ।। 12 ।।