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प्रीत की बाँसुरी / विमल राजस्थानी

युद्ध-गर्जन नहीं, प्रीत की बाँसुरी
होंठ पर चाहिए आज संसार के
बाँध कर नाश को स्नेह की डोर से,
डूब जायें सभी सिन्धु में प्यार के
एक ऐसी लहर, जो चिरंतन, अमर
ज्योति के रथ चढ़ी, छा रही विश्व पर
रूप लेगी जभी वह महासिन्धु का
सत्य की उष्णता और होगी प्रखर
विश्व-बन्धुत्व की ज्योत्स्ना के तले
जिंदगी गीत गायेगी त्यौहार कें
गर्त में आ गिर हो जिन्हें छोड़ कर
हैं बुलाते तुम्हें सत्य के हिम-शिखर
लौट जाओ, बहाओ न तुम यों लहू
राष्ट्र के, जाति के, धर्म के नाम पर
एक जननी हमारी, पिता एक ही
हम हैं मोती सभी एक ही हार के
जो दीवारें खड़ी हैं उन्हें ढाह दो
एकता-सूत्र को और विस्तार दो
दुष्ट दुःशासनों से घिरी शांति की-
द्रौपदी, कृष्ण बनकर इसे तार दो
एक ही सिन्धु के हैं थपेड़े सभी,
या हों इस पार के, या हों उस पार के
राम, रावण, कन्हैया की बातें बहुत-
हो चुकीें, रास भी तो रचाये गये
मन्दिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों-
में प्रतिक्षण दयानिधि बुलाये गये
रेतते किन्तु, गर्दन किसी मीत की
याद आये न दिन प्रीत के, प्यार के
तीर पर खुद पहुँच कर दगा दे गये
साथियों को, जो साथी थे मझँधार के
एक बिरूआ उगा, चार थीं डालियाँ
पत्तियों पर समुन्दर रचाये गये
मूल को तो हजम हम कभी कर गये
डाल के पात पीछे चबाये गये
कुछ दिनों तक समुन्दर की लहरें गीनीं
अब तो झगड़े फकत पाल-पतवार के
रो रहा सत्य, ईमान पागल हुआ
प्रेम की, प्रीत की अर्थियाँ आ रहीं
स्याह ऐसा हमारा गरेबाँ हुआ
चाँदनी पारस आने से घबरा रही
नग्न इंसानियत, बीच बाजार में,
बिन्दु पर है टँगी तीर-तलवार के
विश्व के नौनिहालो ! बचा लो इसे
तुम को सौगंध भीतर के भगवान की
‘देवता’ को चढ़ा चाँद पर भेज दो
है जरूरत हमें आज ‘इंसान’ की
ज्ञान की, कर्म की, भक्ति की बीन पर
स्वर निनादित करे जो कि ओंकार के
‘भेद’ जो ला सके, लोक-कल्याण-हित,
सिद्धियों के सहारे, सहस्रार के