उनींदी सी मैं आ बैठूँ,
कल्पना के बसेरे में,
नीलांबर की ओढ़ चदरिया,
बादलों के घेरे में।
हरित धरा को मान बिछौना,
झरे सुमन कर आलिंगन,
नाप डालूँ अंतरिक्ष सारा,
पग के हर एक फेरे मेँ।
विस्तृत उर आकार दूँ,
घूमती अवनी के चाक पर,
बारिश की बूँदों की खुशबू,
धूल धूसरित पात पर।
वही सुगंध पवन बिखेरूँ,
कण कण प्रेम सुवास भरूँ,
मिलन कलियाँ महकें चटकें,
प्रिय पाती की डाक पर।