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प्रेमपत्र-1 / मदन गोपाल लढा

तुम्हारा प्रेम पत्र
मैंने संभाल रखा है
ओरिये की सन्दूक में।

रोज़ सुबह देखता हूँ
प्रीत की वह अनमोल निशानी
चाव से बाँचता हूँ
प्रेम के आखर

अचानक हरा हो जाता है
समय का सूखा ठूँठ
अंतर में उतरने लगती है
मधरी-मधरी महक।

तुम्हारा प्रेम पत्र
समुद्र बन जाता है
स्मृति के आंगन में।


मूल राजस्थानी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा