अच्छा ही किया तुमने
जो मुझे कभी कोई
प्रेमपत्र नहीं लिखा
वरना..........
इस दुश्मन दुनिया से
मै उसे
कहाँ कहाँ छिपाता....
कब तक बचाता
उसके गुलाबी रंग को
पीला पड़ने से
कब तक बचाता
उसकी मुलामियत को
सख्त होने से
कब तक सहेजता मैं
उन शब्दों का नशा
इस नश्वर दुनिया में
जहाँ हर नशे की
मियाद तय है
जहाँ हर नशे की
कीमत तय है
इसलिए अच्छा ही किया तुमने
जो मुझे कभी कोई
प्रेमपत्र नहीं लिखा
वरना एक वक्त के बाद
तुम खुद भी मुझसे
इसी वज़ह से डरी डरी रहती
हर पल अतीत का
एक खौफनाक साया
मंडराता रहता
तुम्हारी निष्ठा के इर्द गिर्द
तब मै रह रह कर
तुम्हारी इन झील सी आँखों में
मगरमच्छ सा नज़र आता
इसलिए अच्छा ही किया तुमने
जो मुझे कभी कोई प्रेमपत्र नहीं लिखा
यह
इसलिए भी अच्छा हुआ
क्योंकि वक़्त के साथ
मै चिडचिडा हो गया
जिंदगी की नियति की तरह
और वक़्त के साथ
तुम बड़ी होती गयी
मैदान में उतरी
पहाड़ी नदी की तरह
जैसे जैसे झमेले बढे
जिंदगी के
मै भूल गया महसूसना
तुम्हारे शब्दों में मौजूद
कच्चे आम और खट्टी
इमली की सिहरन
धरती को मुट्ठी में
बंद कर लेने की फैंटेसी
सितारों के झुरमुट में बैठकर
कभी न आये कल की कल्पना
और सांसों में
उगते सूरज की तपिश
जबकि गुजरते वक़्त के साथ ही
तुममे बढ़ गया
मेरे शब्दों में
दिवाली और होली
महसूसने का एहसास
बढ़ गयी तुममे
अतीत की जुगाली
....और अब मैं
आश्चर्य से सोचता हू
क्या तुम वही छुई मुई सी लजाती शरमाती लड़की हो
जो हाय कहने के लिए पहले आधे घंटे रिहर्सल करती थी
क्या तुम उन दिनों भी
इतनी ही तेज थी?
तुम्हारा उन दिनों का लिखा
कोई प्रेमपत्र होता
तो पता नहीं आज
उसे पढ़ते हुए
कैसा लगता?
इसलिए अच्छा ही किया तुमने
कि मुझे फिर से
उन दिनों में लौटने का
मौका कोई नहीं दिया
जब गुलाबी धूप
बड़ी नशीली लगा करती थी
और साथ साथ भीगना
किसी ईनाम से कम नहीं होता था
मै यह इसलिए कह रहा हू
क्योंकि अगर मेरे पास होता भी
तुम्हारे अल्फाजों का
वह पहला रेतमहल
तो वह भी आखिर कितने दिनों
सलामत रहता
अरे! मै तो बताना ही भूल गया
कि तुम्हारे जाने के बाद
यहाँ कई तूफान आये
अंधड़ आए
जिनमे ढह गए
कच्ची रेत के वो तमाम
पक्के से लगने वाले महल
जिनमे अभी वक़्त के पसीने का
गारा लगना था
इसलिए अच्छा ही हुआ
कि तुमने मुझे
घरौंदों की ख्वाहिश के सुरमई दिनों में
अल्फाजों का कोई
रेतमहल नहीं सौंपा था
मुझसे उसका ढहना देखा न जाता
मै खुश हू कि
पुलिसवाले क़ी तलाशी के दौरान
मेरी पुरानी किताबों के बीच
तह करके छिपाया गया
तुम्हारा कोई प्रेमपत्र नहीं मिला
इसलिए नहीं कि उससे
मेरी क्रांतिकारिता का भाव गिरता
इसलिए कि
मेरे ही सामने
वह तुम्हारे नाज़ुक शब्दों से
बलात्कार करता
और मै बेबस देखता रहता
उस समय न धरती फटती
न ज़लज़ला आता
मुझे बेनूर हो चुकी
अपनी पथराई आँखों से
वह मंज़र देखना ही पड़ता
इसलिए अच्छा ही हुआ
जो तुमने मुझे कभी कोई
प्रेमपत्र नहीं लिखा