वह जो पंछी
खाता नहीं, ताकता है,
पहरे पर एकटक जागता है-
होगा, होगा जब।
मैं वह पंछी हूँ
जो फल खाता है
क्यों कि फल, डाल, तरु, मूल,
तुम्हीं हो सब।
पर एक जागता है, ताकता है-
कौन?
मैं हूँ, जागरूक, पहरेदार।
पक्षी और डाल, तरु और फूल,
सभी मैं देखता हूँ
तुम्हारा होकर।
मुक्त करे तुम्हें, मौन
वही तो होगा
मेरा प्यार।
नयी दिल्ली, सितम्बर, 1968