Last modified on 2 मई 2010, at 10:13

प्रेम / परमेन्द्र सिंह

एक शरारती
जंगली खरगोश
अपनी झलक-भर दिखाकर
छिप जाता
खो जाता - अन्तर्बाह्य के विस्तारों में
एक चाह कि छू लें उसे।

बना लेना चाहते हैं
उसकी नर्म खाल के गर्म दस्ताने।

बरसों
वह थकाता
पर अन्ततः दबोच लिया जाता
सहलाया जाता - दोहराए जाते स्पर्श
बिना जाने, बिना देखे
उसका काला पड़ता हुआ रंग।