शुरू पूस की एक मध्य रात्रि
मैं जाग नहीं, सो रही हूँ सारे जग के लिए
सिहरती ठंड में
रज़ाई से बाहर मुख करते ही
समझ जाएंगे सब
मेरे सोने की कहानी
लिहाफ़ के अनंत आकाश तले
मैं लिख रही हूँ साँसो से नींद के ऊपर चौपाई
कि-रात के दो बजे नहीं लिखे जाते प्रेम ग्रंथ
इस पर केवल बिरह का शासन है
गीली साँसों की हरारत से
जाग जाएगा प्रेम
जानती हूँ मैं
इसके लिए
चाँद पहर में
खिड़की खोलकर
सर्द हवा से खेलने की ज़रूरत नहीं
बायीं करवट के लेते ही
कंधे के नीचे धड़कने लगता है प्रेम!