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प्रेम / प्रिया जौहरी

यह प्रेम
जीवन के ज्येठ माह
की दोपहर में
आषाढ़ के बादलों के
पदार्पण सरीखा होता है
दो जोड़ी आंखें
एक साझा स्वप्न देखती हैं
जहाँ अखिल विश्व
इन आँखों के झरोखों में
झाँकता-सा प्रतीत होता है
जीवन के विटप में
आशाओं की लता
अपने लिए स्थान बनाती
जीवन उत्सव की उषा का
स्वागत करती है
हर श्वांस एक गीत
और मौन लय की
प्रतीति देता है
सब कुछ लुटा देने
को आतुर मन
इस प्रेम में रम
सबकुछ लुटाकर
ब्रह्मांड का स्वामी हो जाता है
जिसके जीवन में
यह प्रेम घटित हो गया
फिर वह शेष संसार से
विघटित हो गया
यह असहज में सहज
और सहजता से असहज
हो जाता है
यह अविश्वसनीय के
विश्वसनीय होने की यात्रा है
यह 'मैं' के गुम होने
और 'हम' के मिलने
की यात्रा है
यह प्रेम सहज ही
'मैं' के तर्पण
और स्वयं के समर्पण
की अनन्त यात्रा है।