Last modified on 26 नवम्बर 2014, at 14:26

प्रेम / विमल राजस्थानी

शनैःशनैः हो रहा पंछियो-
का अमंद कलरव है
लुटा-लुटा नभ में शशि-
तारों का विशाल वैभव है
सुन रवि-रथ कर मृदु-मंगल-
ध्वनि प्राची मुस्कायी है
गौर कपोलो पर लज्जायुक्त-
अरुमणि-द्युति छायी है
आज हुआ मन प्रात भ्रमण का, सुरथ द्वार पर आया
प्रात-वायु पर तैर रहा रवि-अरुणालोक सुहाया
वेद-मंत्र-गुंजित मथुरा के मंदिर खुले-खिल थे
नर के हृदय-हृदय से नारायण के तार मिले थे
यज्ञ-धुम्र की सुरभि चतुर्दिक इतराती-सी छायी
इसी बीच वासवदता यमुना के तट पर आयी
दूर क्षितिज पर सूर्योदय का रूप भला लगता है
मधुर शान्ति-सद्भाव हृदय में मंद-मंद जगता है
प्रथत दृष्टि अटकी यमुना के श्यामल झलमल तन पर
 लौटी तुरत देख छिटकी नैसर्गिक प्रभ पुलिन पर
यह कैसा प्रकाश, यह कैसी ज्योति, विभा यह कैसी!
यह आलोक, रश्मि-मंडित आकृति चुम्बक के जैसी
कौन-कौन यह तरूण! कौन यह रति-पति से भी सुन्दर!
बालरुण की किरण-डोर से बँधा, खिला इन्दीवर!
या कि एक दूसरा अनाखो रवि प्रकटा यह जल से!
क्षितिजारुण से अधिक दिव्य, निकला यमुना के तल से!
गैरिक वस्त्रो से सज्जित, जल-मज्ज्ति,ज्योति प्रखर है
व्योम-विहारी से भी कहीं अधिक तेजस्वी नर है
अहा!कांति दिव्यानन से झर रही निरंतर कैसी!
रोम-रोम में मेरे पुलकन अहा! रही भर कैसी!
देखा-निरख है इन आँखो ने शत कोटि जनों को
पर बरौनियाँ बीन न पाती हैं इन ज्योति-कणों को
नयनो को यह रूप अनोखा शरण नहीं दे पाता
फिर भी बार-बार आँखा का वातायन खुल जाता
भर-भर कर भी है न अघाती दृष्टि, रूप है कैसा!
नैसर्गिक सौन्दर्य अहा!अद्भुत, अनुप है कैसा!
कौन-कौन यह रोम-रोम में समा रहा जो मेरे?
अहा! अछूते यौवन पर किन बाँहो के घेरे?
गौरवर्ण है देह-यष्टि अति सुगढ़, प्रभा झरती है
पा का जिसे निहाल व्योम है, धन्य हुई धरती है
मुखमंडल है सौम्य, नासिका शुक की-सी अति सुन्दर
आँखे आम्र-फाँक-सी तंद्रिल, भौं कमान-सी मनहर
चौडा है अति वक्ष, आजानु, स्कंध मांसल हैं
जंघा पृथुल, सिंह-सी कटि है, लगता राजा नल है
तीनो लोको की सुन्दरता सिमट चली आयी है
मन- कोने में छिपी प्यास क्या यहाँ खीच लायी है ?
किये दष्टि नत, महाभाव मं डूबे तरुण तपस्वी
ज्ञानोदिध का तल-स्पर्श करते निर्लिप्त मनस्वी
धीरे-धीरे चले आ रहे, तट छुटा जाता है
अपलक रही निहार नर्तकी, रूप बहुत भाता है
जैसे-जैसे निकट आ रही आकृति, हृदय धड़कता है
प्राण खीचे जा रहे उधर ही,यह कैसी परवश्ता!
प्रथम दृष्टि में वासव का हृदय वाण-सा छुटा
वीचि-विहीन प्रीति-अम्बुधि में अतनु-बुलबुला फुटा
धरा लिपटने को आकुल हो जैसे शुभ्र गगन से
रति की भेंट हो गयी मानो सहज सदेह मदन से
खिली कली की पंखुरियां पर भृंग नहीं मँडराया
स्वयम्-कली ने भृंग-चरण पर चुम्बन-राग चढ़ाया
दीप-शिख की ओर पतंगे ने न निमिष को देखा
स्वयम् शलभ तक जा पहुँची ज्यों प्रेम धर्म की रेखा
आते-आते निकट रह गयी जब थोड़ी सी दूरी
होती दीखी नहीं दृष्टि मिलने की इच्छा पूरी
रूप-गर्विता ने पद तनिक हिला पायल झनकाई
आकर्षित करने की नारी सुलभ युक्ति अपनायी
किन्तु, रेत पर पड़े चिनह् ज्यों लहरो से मिट जाते
अनहद-नाद सुन रहे श्रुति-पट ‘जग‘ कैसे सुन पाते ?
मुड़ी, हुई ओझल आँखो से मनुजाकृति वह क्षण में
मलय गंध भीनी-भीनी अवशेष रह गये मन मे
हृदय साथ ले गया तपस्वी, देह रह गयी पीछे
तभी सारथी ने वल्गा के स्वर्ण-तार यों खींचे
थमे रहे कुछ पल तक घोड़े,पाँव वायु में रोपे
पुनःचल पड़े अश्व अनमने मानो सुध-बुध खो के
उड़े जा रहे अश्व वाण से, चक्र-विहीन लगे रथ
पलक झपकते पार किये जा रहे सुरथ पथ पर पथ
बहुत दिनो से तृषा एक अन्तर में पाल रही थी
एक कमी जीवन साथी की अह-रह साल रही थी
अन्तरतम मे छिपी चाह, लगता है पूरी होगी
हे भगवान! न जाने पूरी कब यह दूरी होगी
कब तक पहुँचूँगी, कब तक, कब से बुलाऊँगी मैं
कब तक पलक-पालने छवि ही आह! झुलाऊँगी मैं
समा गयी है एक-एक पल मं कल्पो की दूरी
कब होगी रे! किस क्षण होगी मेरी इच्छा पूरी
बौद्ध-विहार भव्य स्थित था कालिन्दी के तीरे
आते थे उपगुप्त बह्य-बेला में प्रतिदिन ही रे!
यमुना का निर्जल तट उनको अतिशय प्रिय लगता था
तरुण तपी का ज्योतिर्मय निमत ध्यान-दीप जगता था
थकी-थकी रथ से वासव की दह मात्र उतरी
प्राण चीखते जैसे आधी रात चीखती कुररी
अधर व्योम में लटके को तृष्णा थी प्रिय की
किसे बताये वासाव अपनी दाहक पीड़ा हिय की
कोई नहीं सगा था उसका, भीड़ परायांे की थी
काँटो से पट गयी अचानक उसकी अन्तर-वीथी
कौन निकाले काँटे, मन की पीड़ा का पहचान
वासव के अन्तर की उथल-पुथल कोई क्या जाने
अब तक नहीं सुदेहयष्टि को देवों ने अवगाहा
प्रथम-प्रथम जीवन में उसने एक पुरुष को चाहा
अब तक भरी आँख से भी न किसी को देखा
आये-गये बहुत लेकिन, उग सकी ना तृष्णा -रेखा
हाट रूप की लगी हुई थी, बरसा करता सोना
किन्तु, सुरक्षित था वासव के अन्तरतम का कोना
नारी के जीवन में जो नर प्रथम-प्रथम आता है
भीतर बहुत-बहुत गहरे वह तुरत उतर जाता है
दूधों भरी तलैया की हर बूँद-बूँद प्यासी है
भुवन-सुन्दरी-मसण-काय-चुम्बन की प्रत्यासी है
खिले सुपुष्ट उरोजो का स्पर्श सुखद पाने को
आकुल है हर लहर नितम्बो का सुख सहलाने को
जो सुख सुर-किन्नर क्षण भर मन बहला कर पाते हैं
दुग्ध-वारि-कण पृथुल जाँघ को सहला पाते हैं
वारि-कणों-सा भाग्य न अब तक अन्य किसी ने पाया
वासवदता की न मिल सकी किन्तु, अभी तक छाया
सूना है श्रृंगार-कक्ष, झंकार न नूपुर की है
जाने किस उलझन में अब तक रतिरानी अटकी है
व्यग्र दासियाँ लिये करों में केशर भरी कटोरी
शयन-कक्ष में औंधे मुँह, क्यो पड़ी हुई है गोरी
निकली थी महलों से तो कितनी प्रसन्न-प्रमुदित थी
वासव हुई उदास न क्षण भर, बात सुप्रकट, विदित थी
फिर यह कैसी आज उदासी महलों में छायी है
काप-भवन की-सी विषण्णता सहज उतर आयी है
पग-नूपुर हैं मौन करधनी पर विषाद छाया है
कंगन अमुखर, पिक-बैनों पर मौन उतर आया है
बुझी-बुझी-सी अगरुबत्तियाँ, यूख चला चंदन है
ईट-ईट चौसठ महलों की खिन्नतना, उन्मन है
निर्झर-सा खुल-खिल कर हँसना, दंत-पंक्ति चमकाना
चहल-पहल रह गयी सिमट कर, नहीं चंचु में दाना
शांत, मोंड़ चोंचे ग्रीवा में धँसा, विहग पिंजर में
चुप बैठे थे, लगा कि कोई बाज घुस गया घर में
रत्न-जड़ित सोने-चाँदी के पिंजरो के ये कैदी
जान गये सब मसृण गुदगुदी सन्यासी ने जो दी
समझ गये वे बंदी पंछी आर्द्र-नयन की भाषा
मीठी चुटकी मधुर सीटियों की न रह गयी आशा
प्रेम प्रशान्त सिन्धु,वासना निर्झरणी चंचल है
क्षण-जीवी है एक, दूसरा गुरु गंभीर,सबल है
निर्झरणी जब भूतल पर आ सरिता बन जाती है
सिन्धु-मिलन के हेतु, ठान हठ, सौ-सौ बल खाती है
तीव्रावग शैलखरी धरती पर आता है
लोट-लोट कर मिट्टी में वह सोनाबन जाता है
किन्तु, प्रेम वह रोग कि जिसकी कोई दवा नहीं है
यह वह मंडल है कि जहाँ पर दूषित हवा नहीं है
साँसे चार जहाँ विधुत गति से जाती-आती है
गल जाते है तीर, धनुष के टुकड़े हो जाते हैं
नयन, नयन में प्राण, प्राण मे रमते, खो जाते है
खो जाते हैं गगन-नीलिमा में तारो से आगे
प्रेम-पतंग दृष्टि से ओझल, दिखते केवल धागे
उन धागो को लक्ष्य बना कर, अग्नि-वाण छुटते हैं
ईर्ष्या, डाह, जलन से दुर्जन मन ही मन घुटते हैं
वे, जनिने न प्रेम पाया है और न कभी जिया है
प्रेम-देहरी पर न प्रकाशित जिनका हृदय-दिया है
मात्र वासना को सुप्रेम की संज्ञा देते हैं
महामूढ़ वे वायु-सिन्धु में बुद्धि-तरणि खेते हैं
नहीं वासना ही प्रधान होती है प्रेम-प्रणय में
मात्र वासना को दुनिया रख सकती पंक्ति-अनय में
किन्तु, पंक्ति से बाहर है जो वह विशुद्ध होता है
नर में नारी, नारी में ना अपने को खोता है
जब दो हृदय एक होने को होते, अकुलाते हैं
स्वाभाविक है, गुँथ जाते है, द्वै।त न रह पाते हैं
आग भरी डाही दुनियाँ वासना जिसे कहती है
वह सुरसरि की अमिय धार है, जो मरु पर बहती है
किन्तु यहाँ तो एक पक्ष ही संवेगो का रोगी
जो भोगी है, किन्तु, दूसरा सिद्ध, तपस्वी योगी