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प्रेम / सरिता महाबलेश्वर सैल

तुम्हें मैं खोजती हूँ कँटीले पर्वत पर
नहीं मिलते तुम मखमली गलियारों पर
तुम्हारे पैरों के छाले अक्सर बताते हैं
पहाडों बियाबानों का पता
नहीं मिलते हो तुम तालाबों झरनों के पास
तुम अक्सर दौडते हो रणभूमि के पास
कराह रहे हैं जहाँ कहीं-कहीं सांसें

चाँद कि गोलायियों को नहीं नापते
तुम मेरे चेहरे की खूबसूरती से
ढूँढते हो तुम उसमें रोटी की विवशता को
और फिर पाती हूँ तुम्हें
मंदिर मस्जिद गिरजाघरों की सीढ़ियों पर
जहाँ दंतुरी मुस्कान भूख सह रही है पीढ़ियों से

जाकर खडी होती हूँ मैं प्रथम मुलाकात के मोड़ पे
पर वहाँ नहीं पाती हूँ मैं तुम्हें
तुम होते हो किसी बुढी माँ के ओसारे पर
जहाँ सूरज कि प्रथम किरण से चाँद की शितलता तक
इन्तज़ार में रिस रही है बुढी आँखे
इन्हीं सबसे तुम्हें प्रेम है और तुम्हारे सब से मुझे प्रेम है ।