क्यों तुम
प्रेम का पौधा
हरा-भरा न रख सके
मुरझा गए पत्ते
और टूट कर
शाख से गिरते रहे
क्यों मैं
सूखी- बेजान मुरझाई- सी
पातियों को पतझड़ की रुत में
आँसुओं से सींचती रही
दोबारा खिल उठने की आस में
क्यों न सोचा
कि मैं खुद अकेले
कभी बहार का मौसम
नहीं बुला सकती
जब तलक
‘तुम’ और ‘मैं’ से बढ़कर
हृदय में ‘हम’ का बीज न बोया जायेगा,
प्रेम की बेल पर
तब तलक हरियाली नहीं आ सकती!