ओर कहां जाऊंगी
कोई दूसरा ठिकाना है भी क्या
दुख की चटक धूप में झुलस
लौटूंगी हर बार
तुम्हारे प्रेम की ही छांव में
जैसे ईंट पाथते मज़दूर
लौटते हैं बार–बार
पास खड़े नीम की ओट में!
ओर कहां जाऊंगी
कोई दूसरा ठिकाना है भी क्या
दुख की चटक धूप में झुलस
लौटूंगी हर बार
तुम्हारे प्रेम की ही छांव में
जैसे ईंट पाथते मज़दूर
लौटते हैं बार–बार
पास खड़े नीम की ओट में!