मेरा आत्मिक संबंध है
कोई अदृष्य अलौकिक सुख
समुद्र के बालू तट पर प्रशांति के द्वार को
छू सकूँगा शब्दहीन निस्तब्ध रात्रि में
मुँह में जितनी भाषा है, उच्चारण उससे भी कम है- यही तो सौंदर्य है
क्यों, किसलिए ये प्रश्न मत करो :
भाषा की बारीकी उससे परे है
बादलों की ओट होने पर भी चित्रों की छवि, बिगड़े नहीं, ऐसी कला
सैंकड़ों पंछी, अतिथि-जैसे नहीं,
बंधु-बांधव की तरह सगोत्र
अपनाई पर्ण्कुटी, डेरा डाला
सिमटे सब दिक्-दिशांतर
यह नगर पुष्पों के बदले पत्थर उगाता है
खुरदरे मध्याहन की तरह ग्रीष्म के इन संबंधों के आस-पास
पड़ गई कुंडलियाँ अवश्मेव
तनुकाय आलिंगन और मेरा प्रकंपन- एक इंद्रिय विन्यास
मैं मुकुल था मुँदी पंखुरी लिए
तुम्हारे स्पर्श से सुहास कुसुम बना विहँसा
कटोरे में भरे चावल-चूरे से बता डाली अल्पना स्मिति की छवि
की यक्ष देश से आई कोई रूप गर्विता करने कालिंदी में किल्लोल
उसके लिए जीवन एक करुण कहानी थी, कहती थी
प्रेम के बीच शब्द भी बाधा होते हैं
कपड़े की तह को खोलती मंद पवन में चंदन गंध
फूलती पलाश पर सध्याएँ-साड़ी के गोटे की तरह चहकती
साड़ी में अर्थ देती
कल ये सब के सब अखबारी आँकड़ों में बदल जाएँ
मन की बिंब भाषाएँ कभी ऐसी नहीं होतीं
वे एक दूसरे को जूड़े से पकड़-पकड़ कर खेलती हैं
क्रीड़ा संकुल प्रेम परिसर में संवेदित गति-पथ में बेताल कथा
की मुकुलावलियाँ जैसे खिलीं !