प्रेम कौ एक मधुर यह नेम।
जो प्रिय के मन भावै, सोई धर्म, जोग अरु छेम॥
जो नित प्रेम-सुधा-रस-पूरित, भूल्यौ सब संसार।
निज बिस्मृति सौं भए धर्म बिस्मृत, कछु रही न सार॥
धर्मी बिना धर्म कहुँ कैसैं रहै पृथक रखि टेक।
घुलि-मिलि भयौ नित्य प्रियतम के मन सौं प्रेमी एक॥
नहीं कामना, तृस्ना, आसा, नहीं स्व-पर कौ भाव।
एकमात्र प्रियतम कर की पुतरी वह सहज सुभाव॥
नहीं नैक निज दुख-सुख की सुधि, नहीं राग नहिं रोष।
नहीं अहित-हित की चिंता कछु, नहिं बिराग लखि दोष॥
सर्बत्याग अति सहज, नहीं कछु मद-ममता-अभिमान।
तन-मन-प्रान-बुद्धि सब प्रियतम, जीवन-मरन समान॥
बिधि-निषेध कौ नहिं बिबेक कछु, नहीं बोध आचार।
प्यारौ जो करवावै सोई करै, न अन्य विचार॥