प्रेम जो प्रगट्यौ ब्रज के बीच,
सो तो दुरलभ है जग मायँ, सो तो अतुलनीय जग मायँ,
सो तो तीन लोक में नायँ, सो तो सप्त द्वीप में नायँ॥
राधा महाभाव की मूरति, माधव रसिक-शिरोमणि रसपति,
इन की त्यागमयी उज्ज्वल रति, निगम न पायौ पार॥
निजसुख-बांछा के सुचि त्यागी, एक दूसरे के अनुरागी,
भोग-मोच्छ के सहज बिरागी, महिमा अपरंपार॥
एक दूसरे कौं सुख देवैं, निज सुख नहिं चाहैं, नहिं लेवैं,
प्रियसुख लागि त्याग कौं सेवैं, अहंकार करि छार॥
प्रेम प्राप्त करिबौ जो चाहै, भर लै हिय में अमित उमाहैं,
सुख-दुख में न हँसै न कराहै, होय पूरौ तैयार॥
गोपीजन के त्याग-भाव कौं, प्रियतम-सुख के एक चाव कौं,
सकल बासना के अभाव कौं करै समुद स्वीकार॥
जीवै-मरै प्रेम के खातर, भोग-त्याग दोउन कौं तजकर,
प्रियतम के इच्छामय बनकर, रहै नित्य अविकार॥