कितने तूफ़ानों को मैं देख नहीं पाई
चिथड़ा होने से पहले
कितने ज्वालामुखी फटे और
छुए बिना उन्हें मैं राख हो गई
कितने झंझावातों ने झिंझोड़ा
कितनी लहरों ने डुबा ही डाला
पलट दिया कितनी नावों ने ठीक धार के मध्य
रुको...रुको...सृष्टि के ओ चक्र
ले चलो मुझे कहीं भी
चक्र चलता रहना चाहिए
आओ मेरे समीप तो ठहरो
लेने से पहले ख़ुद पर
छू कर देख तो लूँ एक बार
मिटा जा सकता है क्या
प्रेम में भी इसी तरह...।