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प्रेम समाधी / निमिषा सिंघल

तुमसे मिलकर
मेरी घोंघे जैसी ऑंखों से टप -टप झरते मोती जैसे आँसु
जो चिपक जाते हैं चेहरे पर आइना बन।
उन आईनों में चमकती तुम्हारी प्रेममयी सजल ऑंखें अक्सर हैरान कर देती हैं मुझे।
तुम्हारा मुझे पढ़ना और बस देखते जाना
मेरी मुस्कान का कारण बन जाता हैं।
विरह ने तुम्हारा स्वरूप बदल दिया हैं ।
मैं पढ़ पाती हूँ
परेशानियाँ, नादानियाँ, उलझने-सुलझने,
अतिशय प्रेम तुम्हारा।
मैं देख पाती हूँ ।
स्याह भरे भरे बादल, ज्वार भाटे के बाद एक शांत समुद्र, एक विशालकाय बरगद।
मैं महसूस करती हूँ ।
तुम्हारा मेरे साथ वक़्त बिताने को आतुर मन,
मेरा हाथ पकड़ कर ।
जंगल- जंगल, पर्वत, नदी, पहाड़ पार करने का मन।
तुम रोना चाहते हो
मेरे काँधे पर सर रख।
तुम हँसना चाहते हो।
मेरे सीने पर सर रख
तुम सोना चाहते हो मुझे अपने बाहु पाश मैं कस ।
मैं अहसानमंद हूँ उस दूरी की ।
जिसने मुझे तुम्हारे नज़दीक ला खड़ा किया।
जैसे नदी समा जाती हैं समुद्र में
वैसे ही प्रेम समाधि ले ली हैं मैंने भी
तुम्हारे भीतर गहरे कहीं ।