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प्रेम स्मृति-8 / समीर बरन नन्दी

थोड़े दिनों साँप-सीढ़ी के खेल की तरह
हमारे बीच कुछ चलता रहा
सब यादों की कोलाज में चलता रहता है ।

आज.. उजाड़ दोपहर पार कर
निस्संगता की शाम की ओर आ गए हैं हम लोग
बुझती हुई लौ की तरह
अचानक याद आ रही हो तुम ।

(रह गया है -- बहुत कुछ
कभी न लौटने के लिए)

झूठी तसल्ली देकर चला गया है... समय...
अबोध सपने वाले अपराधी की तरह भागते-भागते
मर गया है अतीत कहने से
छाती में उठती है हूक...

इसलिए बैठा नहीं पाया जीवन में तुक...