कहाँ गए वे दिन
जिन्हें हमने छोटे-छोटे अल्युमीनियम के गमलों में बोया था?
धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे दिन।
हमारे श्रमकर्षित जिस्मों से निकलती थीं ठोस इरादों की उसाँसें,
बाँस की छोटी-सी झोपड़ी की खिड़की से आती ठण्डी हवा
हमें सुबह की लड़ाई के लिए लोहा बना देती थी।
दिन भर हम भट्ठी में गलते थे
और शाम को देखते थे एल्युमीनियम के गमलों में
पलते-बड़े होते अपने दिनों को।
वे दिन थे हमारे लिए — तुलसी दल
पीपल
कनेर, बेला, गुलमेहदी, सूरजमुखी
गुलमोहर, तीज त्योहार, नए कपड़े,
नई किताबें, नई कविताएँ, नये नृत्य-
संगीत रचनाएँ, संघर्ष की नई ख़बरें,
नई तैयारियाँ, नई सफलताएँ, नए मित्र
नए संवाद...
गमलों में उगते उन दिनों में
झलकते थे इन्द्रधनुष, अलकापुरी, सैर सपाटे, अभियान,
पर्वत, समन्दर, फूलों की घाटी की सैर...
चाबुक खाते लोगों के साथ हम भी लगाते थे इंकलाब का नारा
हो जाते थे लहूलुहान.... पर
गमलों को सिरहाने रख हम
सो जाते थे अगली सुबह की लाली को मस्तक पर
गालों पर
होठों पर
हृदय पर मलने के लिए...
कि जब एक-दूजे के चेहरों में ख़ुद को
और अपने जैसों करोड़ों अनाम साथियों को देख
रीझ रीझ जाते थे हम।
बिस्तर की सलवटों को
निकालते-चहकते हम सुनते थे प्रभात फेरियों के ताज़ा स्वर
और दुनिया भर के अन्धे कुओं की मुण्डेर पर
खड़ी होकर चीख़ती भीड़ की आवाज़ —
‘सुबह हो गई,
अन्धेरा बेदख़ल हो!’
...कि जब अख़बारों के तेज़-तुर्श शीर्षकों को
कैंची से काट
हम असली ख़बरों की अलबम में चिपकाते थे...
...कि जब दफ़्तर के बॉस को मुँह चिढ़ाते थे
और अपनी पसंद के शब्द लिखते थे सरकारी नोटशीट पर
कि जब मार्क्स और आदि शंकराचार्य
लेनिन और भगतसिंह
कबीर और पुरन्धरदास और हरिदास
मीरा और आण्डाल — सबको मथते थे अपने अध्ययन कक्ष में
कि जब घर की खिड़कियों से झाँकते
भेड़ियों को हम भगा देते थे जंगलों में —
डरा कर अपनी आंखों की लाल चिंगारियों से।
मगर फिर क्या हुआ?
याद है?
मुझे याद है।
मुझे याद है कि सचिवालय से आया था एक तेज़ाब का बादल
बरस गया था हमारे गमलों पर।
फिर भी हमारे इरादे सुरक्षित थे
तेज़ाब के बादलों के छँटते ही हमने देखी थी माफ़िया टोली
नहीं नहीं, वे जादूगर नहीं थे —
बाजीगर नहीं थे
बहुरूपिए नहीं थे
उनमें थे व्यापारी, आरक्षी, अधिकारी-राजपुरुष-गुण्डे-क़ातिल,
लबारची, चारण, चमचे, दलाल, कमीशनख़ोर, सटोरिए,
जुएबाज़, चोर, बटमार और गोएबल्स के नए कम्प्यूटरी संस्करण।
उनमें हरेक के जबडों में फँसे थे
हमारे छोटे छोटे गमले
जिनमें रोपे थे हमने अपने दिन।
वे हमारे दिन चबा रहे थे....
हमारे शरीर का तमाम लोहा और रक्त उन्होंने सोख लिया है
वे सोख चुके हैं हमारे मस्तिष्क का
तमाम विवेकी द्रव...
अपनी अपनी पोशाक पर
तीन रंगों का उलटा स्वस्तिक सजाए....वे
हमें गुलाम बना चुके हैं...
हमें बेहोश कर
हमारी नींद में उन्होंने ले लिए हैं हमारे अँगूठों के निशान —
अपने सोने-चांदी-हीरे और झूठ के
स्टाम्प पेपरों पर।
दशक धँस रहे हैं काल के गाल में।
धंस सकती है शताब्दी भी...
अगले दशक भी, अगली शताब्दी भी...
हमारी जलती लालटेन की बत्ती
उन्होंने निकालकर फेंक दी है।
................
अन्धेरे, घुप्प अन्धेरे में
छू रहा हूँ मैं तुम्हें
टटोल रहा हूँ
कोशिश कर रहा हूँ जगाने की....
ताकि तुम्हारे चेहरे की
मायावी रंगत बेदख़ल हो....
तुम एक नहीं हो मेरी प्रेयसी
तुम महादेश की करोड़ो-करोड़ जनता हो
तुम्हारी अधखुली, नींद भरी आखों की कोरों से रिसते
सपनों के दृश्यबन्ध और
तुम्हारी चेतना में नर्तन करते
एक गोल गुम्बद में रचे जादू के करिश्मों के
मायाजाल के तार काट सकूँ...
बेताब हूँ इसके लिए...
देखो तो / जागो तो / सुनो तो
सबके साथ यही हुआ है... ठीक यही...
हम सबके साथ यही हुआ है...
.......................
हाँ मैं देख रहा हूँ साफ़-साफ़
तुम जाग रही हो धीरे-धीरे / लोग जाग रहे हैं धीरे-धीरे
रंगीन, सुगन्धित कोमा की दलदल से लोग
धीरे-धीरे उठ रहे हैं, सम्भल रहे हैं....
बुझी हुई लालटेनों की बत्तियां ढूँढ़ रहे हैं लोग...
अपने अपने गमलों में फिर से रोपेंगे
अपने पौधे, अपने स्वप्न
जिन्हें पोसेगी आज़ाद हवा।
मेरी प्रिय
आज़ाद साँस और आज़ाद हवा
और आज़ाद धरती से बड़ा
कुछ नहीं होता।
...मैं तुम्हारी आँखों की
रक्ताभा में देख रहा हूं
आज़ादी का
स्वप्न, पुनर्नवा !