जब-जब थके हुए हाथों से छूट लेखनी गिर जाती है 'सूखा उर का रस-स्रोत' यह शंका मन में फिर जाती है, तभी, देवि, क्यों सहसा दीख, झपक, छिप जाता तेरा स्मित-मुख- कविता की सजीव रेखा-सी मानस-पट पर तिर आती है? डलहौजी, 14 सितम्बर, 1934