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प्रेरणा की मृत्यु / रामकृपाल गुप्ता

क्या लिखूँ
रीता मन-रूठकर कल्पना चली गई।
शेष हैं एक वृहद शून्य के वृत्तपाश
बन्दी हैं प्राणों के सारे स्वर
क्या गाऊँ
गतिहीना
मतिहीना
लेखन कलपती-सी
चूर-चूरअभिमान
जैसे उपेक्षित अनादृता
मानिनी सिसकती-सी
पड़ी है।
कैसे मनाऊँ अरे पोर-पोर
टूटी उँगलियो की
कैसे उन बालों का सहलाऊँ
द्वार हर द्वार बन्द
छनद की सुहास कहाँ से लाऊँ
उजड़ी रे वाटिका उजड़ गई
अलि दल उदास
और काँटो से तितली के पंख बिंधे
मुरझाये फूल ढले
दूर कहीं उड़ गई सुवास
जाने क्यों माली की साधना छली गई।
क्या लिखूँ रीता मन
रूठ कर कल्पना चली गई।