मैं
नदी के उस छोर पर रहता हूँ
जहाँ पानी नाम-मात्र
मल-मूत्र के स्राव-सा बहता है,
सूखी हुई पतली काली वेणी
या फिर रेंगता काला करैत
जो भी उसे कह लें
बाकी की नदी, नग्न पसरी
सूखी सफ़ेद
बलुआही मिट्टी ओढ़े
सलमा-सितारा जैसे फैले
अबरख के टुकड़ों को आईना बना
दिन भर
आसमान का आँख
चमकाती रहती है
चुँधियाया आसमान
समझ नहीं पाता
कैसे निपटे
नदी की इस धृष्टता से;
अज्ञात ठिकानों से
बह कर आई लकड़ियाँ
कहीं मृतक के गड़े हाथों-सी
तो कहीं
ढीठ, औंधी पड़ी
अल्हड़ युवती के नितम्बों-सी
उठी
कभी अभाव की उबासी लेती
तो कभी घाव से भरी रोती
बरसात में कदाचित
उलीच कर
धरती के ढलान पर
मारमुखी जुलूस-सा उमड़ता
पानी
जब भर जाता है
नदी के इस छोर का
सूखा समतल
जब प्लावित तन से
जुड़ जाता है
भींगा अन्तस्तल
नदी उफन उठती है
सागर को
जो बाँहे पसारे
दूर खिंचा जा रहा है
चित्त पड़ा, पाताल के गर्त्त में
गिरते हुए शरीर-सा
मैं
नदी के उस छोर पर
कल्पना के सारे बल से
खींचे खड़ा हूँ
नदी को
अपेक्षा में
कि कब ये
अपने तात्कालिक उफान से उबरे
और फिर से सूख
स्थिर हो जाए
औंधी पड़ी बाला की पीठ पर
हिलती, काली पतली
वेणी की तरह,
फिर से हम मिलकर
चमकायें आसमान की आँख
सूखे अबरख के आईनों से।