फल की आस लिए अंतर में
कब तक यों परिचय गुहराए
छोड़ चला पंछी दोपहरी
पात-झरी डालों के साए ।
कुछ दिन पहले इसी डगर के
पनघट पर होते थे वादे
अक्सर भूल गया मग मृग था
सुनकर पायल के स्वर सादे
अब तो घट-घट भरी उदासी
पनघट पर विस्मृति के जाले
अब न रहीं वे लाल मछलियाँ
जो बरबस लोचन उलझा लें
देख मुझे मंदिर की प्रतिमा
बीती पर यों शरमा जाए
जैसे पूनम के चेहरे पर
सौ-सौ जवाकुसुम लहराए ।
पल प्रलयी बीते ज्वारों के
अविरल जली नयन की बाती
कोटर में शुक के शावक-सी
दुबकी रही किरण की थाती
कस्तूरी घूंघट से जब-जब
बींध गयी सुधि की पुरवाई
साँझ-सबेरे अंजलि में भर
मैने छबि अपनी दुलराई
अपनी ही वंशी की प्रतिध्वनि
मर्मस्थल ऐसे छू जाए
जैसे नागफनी का काँटा
नागफनी को ही चुभ जाए ।