दुनियां में कोई शाद<ref>खुश</ref> कोई दर्दनाक है।
या खु़श है, या अलम<ref>रंज</ref> के सबब सीना चाक है।
हर एक दम से जान का, हर दम तपाक है।
नापाक तन पलीद<ref>गन्दा</ref>, नजिस<ref>अपवित्र</ref> या कि पाक है।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥1॥
है आदमी की ज़ात का इस जा बड़ा ज़हूर<ref>ज़ाहिर होना</ref>।
ले अर्श<ref>आसमान</ref> ताबा<ref>से</ref> फ़र्श<ref>ज़मीन तक</ref> चमकता है जिसका नूर।
गुज़रे हैं उनकी क़ब्र पे जब वह्श<ref>जंगली जानवर</ref> और तयूर<ref>चिड़ियाँ</ref>।
रो-रो यही कहे हैं, हर एक क़ब्र के हुजूर।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥2॥
दुनिया से जबकि अम्बिया और औलिया उठे।
अजसाम पाक उनके इसी ख़ाक में रहे।
रूहंे हैं खूब हाल<ref>सुख चैन</ref> में, रूहों के हैं मजे़।
पर जिस्म से तो अब यही, साबित हुआ मुझे।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥3॥
वह शख़्स थे जो सात विलायत के बादशाह।
हश्मत<ref>रौब-दाब, सम्मान</ref> में जिनकी अर्श<ref>आसमान</ref> से ऊंची थीं बारगाह<ref>शाही मकान, दरबार</ref>।
मरते ही उनके तन हुए गलियों की ख़ाक-राह।
अब उनके हाल की भीयही बात है गवाह।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥4॥
किस-किस तरह के होगए महबूब कज कुलाह<ref>टेढ़ी टोपी पहनने वाले, माशूक</ref>।
तन जिनके मिस्ल फूल थे और मुँह भी रश्के माह<ref>चांद की प्रभा कौ मंद कर देने वाले</ref>।
जाती है उनकी क़ब्र पे जिस दम मेरी निगाह।
रोता हूं तब तो मैं यही कह-कह के दिल में आह।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥5॥
वह गोरे-गोरे तन, कि जिन्हों की थी दिल में जाय।
होते थे मैले, उनके कोई हाथ गर लगाय।
सो वैसे तन को ख़ाक, बनाकर हवा उड़ाय।
रोना मुझे तो आता है, अब क्या कहूं मैं हाय।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥6॥
उम्दों के तन को तांबे के सन्दूक में धरा।
मुफ़्लिस<ref>गरीब</ref> का तन पड़ा रहा, माटी उपर पड़ा।
क़ायम यहां यह और न साबित वह वां रहा।
दोनों को ख़ाक खा गई, यारो! कहूं मैं क्या।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥7॥
गर एक को हज़ार, रूपे का मिला कफ़न।
और एक यूं पड़ा रहा, बेकस, बर हना<ref>नंगा</ref> तन।
कीड़े मकोड़े खा गए, दोनों के तन बदन।
देखा जो हमने आह, तो सच है यही सुखन।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥8॥
जितने जहां में नाज हैं, कंगनी से ता गेहूं।
और जितने मेवाज़ात हैं, तर खु़श्क गुनांगूं।
कपड़े जहां तलक हैं, सुपेदो, सिया, नमूं।
कमख़्वाब, ताश, बादला, किस किस का नाम लूं।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥9॥
जितने दरख्त देखो हो, बूटे से तावा झाड़।
बड़, पीपल, आम, नीब, छुआरा, ख़जूर ताड़।
सब ख़ाक होंगे, जबकि फ़ना डालेगी उखाड़।
क्या बूटे डेढ़ पात के, क्या झाड़, क्या पहाड़।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥10॥
जितना यह ख़ाक का है, तिलिस्मात बन रहा।
फिर ख़ाक इसको होना है, यारो जुदा-जुदा।
तरकारी, साग, पात, ज़हर, अमृत और दवा।
ज़र<ref>माल, दौलत</ref> सीम<ref>चांदी</ref>, कौड़ी, लाल, जुमुर्रद<ref>पन्ना</ref> और उन सिवा।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥11॥
गढ़, कोट, तोप रहकला<ref>तोप लादने की गाड़ी</ref>, तेगो, कमानोतीर।
बाग़ो चमन, महलो मकानात दिल पज़ीर।
होना है सबको आह, इसी ख़ाक में ख़मीर।
मेरी जुवां पे अब तो, यही बात है ”नज़ीर“।
जो ख़ाक से बना है, वह आखि़र को ख़ाक है॥12॥