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फ़र्ज़ अपना भूल जाये उस दिये को फूँक दो / डी. एम. मिश्र

फ़र्ज़ अपना भूल जाये उस दिये को फूँक दो
आग जो घर को लगाये उस दिये को फूँक दो

भूलकर मक़सद गर अपना वो धुआँ देने लगे
कौन फिर उसको बचाये उस दिये को फूँक दो

तेल है, बाती भी है पर, हौसला बिल्कुल नहीं
जो हवा से लड़ न पाये उस दिये को फूँक दो

घर हमारा बिन चिराग़ी हो के रह जाये भले
खूँ के जो आँसू रुलाये उस दिये को फूँक दो

वो अँधेरे का हमारे चाँद सूरज हो मगर
दिन में जो तारे दिखाये उस दिये को फूँक दो

राजधानी में जले चाहे गली में, गाँव में
रोशनी जो दे न पाये उस दिये को फूँक दो