वय तो अपने चरम पर पहुँच ही रही है
रह-रह कर
कोई न कोई शारीरिक तकलीफ जाग जाती है
इन दोनों की युगलबंदी मुझे कुछ करने नहीं देती
लंबे-लंबे दिनों का यों ही बीतना
कितना उबाऊ होता है
लेकिन मैं बैठे-बैठे फाइल खोल लेता हूँ
कभी कविता की, कभी कथा की, कभी किसी अन्य विधा की
और बाहर भीतर की एक बड़ी दुनिया
मुझमें खुलती चली जाती है
और मैं उसमें गति भरने लगता हूँ
रोज़ रोज़ इन्हीं फाइलों से गुज़रने के बाद भी
मैं ताज़गी महसूस करता हूँ
जैसे नदी में नहाकर निकला होऊँ?
न जाने कौन सी संजीवनी है इनमें
कि हर क्षण जीवन-स्पंदित हो उठता है
और हर दिन एक विशेष दिन बन जाता है।
-28.8.2014