भील लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
ढोल रो धमेड़ो में तो रोटा करती हुणियो रे॥
घुघरिया रो रणको में तो मोलो हुणियो रे, महिनो फागण रो।
हाँ रे महिनो फागण रो, फागण रो महिनो एलो जाये रे,
महिनो फागण रो॥
- फाग की रसिक महिला कहती है कि ढोल की आवाज तो मैंने रोटी बनाते हुए सुनी, किन्तु नाचने वालों के पैरों के घुँघरुओ की आवाज बहुत ही कम सुनाई दी जिससे सुनने में मजा नहीं आया। फाल्गुन का महीना यों ही बीत रहा है अर्थात फाग का आनन्द नहीं आ रहा है। नाचने वालांे के पैरों के घुँघरुओं की आवाज सुनाई नहीं देती है।