Last modified on 25 अक्टूबर 2009, at 08:44

फिर एक बार / महादेवी वर्मा

मैं कम्पन हूँ तू करुण राग
मैं आँसू हूँ तू है विषाद,
मैं मदिरा तू उसका खुमार
मैं छाया तू उसका अधार;

मेरे भारत मेरे विशाल
मुझको कह लेने दो उदार!
फिर एक बार बस एक बार!

जिनसे कहती बीती बहार
’मतवालो जीवन है असार’!
जिन झंकारों के मधुर गान
ले गया छीन कोई अजान,

उन तारों पर बनकर विहाग
मंड़रा लेने दो हे उदार!
फिर एक बार बस एक बार!

कहता है जिनका व्यथित मौन
’हम सा निष्फल है आज कौन’!
निर्धन के धन सी हास रेख
जिनकी जग ने पायी ने देख,

उन सूखे ओठों के विषाद-
में मिल जाने दो हे उदार!
फिर एक बार बस एक बार!

जिन पलकों में तारे अमोल
आँसू से करते हैं किलोल,
जिन आँखों का नीरव अतीत
कहता ’मिटना है मधुर जीत’;

उस चिन्तित चितवन में विहास
बन जाने दो मुझको उदार!
फिर एक बार बस एक बार!

फूलों सी हो पल में मलीन
तारों सी सूने में विलीन,
ढुलती बूँदों से ले विराग
दीपक से जलने का सुहाग;

अन्तरतम की छाया समेट
मैं तुझमें मिट जाऊँ उदार!
फिर एक बार बस एक बार!