करते हैं ये लोग मज़े से
गिद्धों का आयात ।
सिद्धान्तों की लाशों का ही
कुछ तो हो उपयोग
मुश्किल से मिलते हैं ऐसे
महाभोज-संयोग
बचे भेड़ियों की बस्ती में
क्यों अब आदम जात ।
उन्मद हिंसा का जीवन भी
ख़ूब हुआ रंगीन
फिर भालों को भूख लगी है,
फिर प्यासी संगीन
रहें निरामिष कब तक ये भी
खा-खा सूखे पात ।
किसी डाल पर भी कैसे अब
शेष रहे हरियाली
सभी दिशाओं को डसती जब
दावानल की व्याली
संध्या आँतों की सौदागर,
रक्त-सना है प्रात ।