खून के अंगार
टपकाती हुई तलवार जाती आर-पार
तड़प कर भरता लहर
आपादमस्तक देह में फैला हुआ अजगर
उठी
उठकर लुप्त होती
और फिर उठती हुई घनघोर पीड़ा
बरसती है-
घुल रहे हैं मिट रहे हैं अब सभी आकार
मिट रहा जलरंग का इक चित्र था संसार
गिरा
चकनाचूर
आले पर धरा जगता दीया
शून्य में खोते हुए अब हाथ-पाँव
छूट कर लो जा रहे हैं दूर
बह रही है कनपटी पर आग
कई सौ मन बोझ लेकर
चढ़ रही है नींद पलकों पर
काँपता निश्शब्द कोई तार
उठ रही है
मगर कानों तक न आ पाती कोई झनकार
तलवार
फिर तलवार करती वार
लेकिन कुछ नहीं इस बार-
हवा में बस एक हल्की साँय-साँय,
गहनतम प्रतिरोध उठता अतल से
जागता निश्शब्द
तोड़ता सारे प्रहार
मोड़ता तलवार की भी धार
उठा मुस्काता हुआ जीवन पुनः
शब्दमय आलोकमय ध्वनिमय सकल संसार!