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फिर फूटी पौ / देवेन्द्र कुमार

फिर फूटी पौ
दूर कहीं जल उठी
अँधेरे की
लौ ।

घर, मण्डप, द्वार सजे
हवा चली, पत्तों के बेशुमार
झाँझ बजे,
गीत ग़ज़ल, शहनाई
कूक उठी तनहाई
फूट पड़ा कण्ठों से
ओ ! नहीं
औ !!

ताल, क़दम कुआँ उठा
चौके में सेंध पड़ी
छप्‍पर से
धुआँ उठा ।
बागों की ठाट-बाट
दिन का ऊँचा ललाट
मिनती के सुबह-शाम
गिनती के सौ !!

चउरे पर, वेदी पर
खोल खूँट का अक्षत
भाखने लगा खण्डहर
दाएँ अरती-परती
बाएँ हुई धरती
पाँच फूल लवँग
और एक दिया
जौ !!