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फिर भी / आलोक श्रीवास्तव-२

कैसी हो प्रिय तुम आज
कैसा है तुम्हारे वासंती वन का विन्यास ?

जानता हूँ
नहीं होगी अब वह हँसी

तुम्हारे जीवन की एक कल्पना है मेरे पास
विगत की कल्पनाओं से कितनी अलग

कितनी अलग दिखती हो तुम इन छवियों में

देखो तो
फिर वही नदी है
शाम का एक अकेला तारा है

जानता हूँ
वहां नहीं हो तुम
जहाँ फूलते थे पलाश
हवाओं में उड़ता था एक राग
पर पूछता हूं फिर भी
’कैसा है प्रिय
आज तुम्हारे वासंती वन का विन्यास ?"