Last modified on 7 जनवरी 2015, at 14:53

फिर भी जीवन / मनोज कुमार झा

इतनी कम ताक़त से बहस नहीं हो सकती
           अर्जी पर दस्तख़त नहीं हो सकते
इतनी कम ताक़त से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पाँव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस
चार अँगुलियाँ गल गई पिछले हिमपात में कनिष्ठा लगाती है काजल ।