शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।
न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।
राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।
शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।
इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।