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फिर लौट आया आज उत्सव का दिन / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

फिर लौट आया आज उत्सव का दिन।
वसन्त के विपुल सम्मान ने
भर दी हैं डालियाँ पेड़-पौधों की
कवि के प्रागंण में
नव जन्मदिन की डाली में।
बन्द घर में दूर बैठा हूं मैं
इस वर्ष व्यर्थ हो गया
पलाश वन का निमन्त्रण।
सोचता हूं, गान गाऊं आज वसन्त बहार में।
आसन्न निविड़ हो
उतरा आता है मन में।
जानता हूं, जन्मदिन
एक अविचित्र दिन से जा लगेगा अभी,
विलीन हो जायगा अचिहिृत काल के पर्याय में।
पुष्प् वीथिका की छाया इस विषाद को करूण करती नहीं,
बजती नहीं स्मृति व्यथा अरण्य के मर्मर गंुजन में।
निर्मम आनन्द इस उत्सव की बजायेगा बाँसुरी
विच्छेद वेदना को पथ के किनारे ढकेलकर।

‘उदयन’
सायाह्न: 21 फरवरी, 1941