Last modified on 5 नवम्बर 2009, at 13:11

फिर से / अरुण कमल

धीरे धीरे उतरी है बाढ़
फिर उभरी आ रही हैं मेड़ें
खुले आ रहे हैं खेत घर द्वार
फिर से मसूड़ों में उग रही है दाँत की पाँत ।

दह गए थे धान के खेत
घरों में भरा था बाढ़ का पानी
यहाँ से वहाँ तक बस बची थी पाँक

पता नहीं कौन-सी कोख में
बचा हुआ जीवन
फिर से फेंकता है कंछा
फिर से अपनी ज़मीन पर लौट रहे हैं लोग-बाग
लौट रहे हैं पशु-पक्षी
लौट रहा है सूर्य
लौटा आ रहा है सारा संसार
इस प्रलय के बाद ।