तुम्हारे बलगई सीने पर हाथ फेरेते
वक्त के तहखाने को चीर कर
दूबिया अहसासों की गोद में
सिर रख देती हूँ।
सकून बेहद
पन्नों की झिलमिलाती कतार
हिदायतों से दूर
पाबन्दियों से अंजान
कहाँ गये वो पल?
उड़ गये बेमुरौव्वत!
अब तो तुम्हारी बलगमी छाती
मेरा थका माँदा झुर्रियों भरा
खुरदुरा हाथ ।
अब तो वो भी पल फिसल गए
जब रूह व जिस्म में
रिश्ते कायम करने का
सवाल हल करते करते
तुम नादिरशाह.........
मैं परकटे परिंदे सी
बेबसी असमंजस
कितना कुछ फिसल गया है
पकड़ूँ तो कैसे?
छुड़्यों के पत्तों पर पड़ी बूँद से
चमकते क्षण......फिसल गए
.................गए................
लो गए ही।