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फुलकली देवी / रंजीत वर्मा

बहुत गहरे से उठती
उद्विग्न गण्डक की हहराती आवाज़
रात के सीने पर अनवरत
पटकती रहती है सर अपना
और सिसुआ मंगलपुर के
थरथराते अन्धेरे में फैल जाती है
हवा के तेज़ निर्बाध थपेड़े
और लगातार डूबते जा रहे
गाँव के कगार पर खड़ा
कोई आदमी आख़िर क्या सोच सकता है
जहाँ सरकार के नाम पर
दिखता हो महज एक ठेकेदार
और देश की सबसे निचली अदालत
भी दूर हो इतनी
कि पानी की हहराकर उठती आवाज़
भी कभी पहुँच नहीं पाती उस तक
डूबता जा रहा है पूरा गाँव धीरे-धीरे

इस देश का लोकतन्त्र जबकि
सिर्फ सत्ता को ताक़तवर बनाता हो
ऐसे में एक आदमी
आखिर क्या सोच सकता है
रात के अन्धेरे में
डूबते गाँव के कगार पर खड़ा

क्या कहता है संविधान
बताए अगर जो पढ़ रखा हो किसी ने
सुना है बाबा साहब अम्बेडकर ने लिखा था इसे
दलितों के आदमी थे वो
और यहाँ शुरू से ही दलितों के गाँव
डूबते रहे हैं इस देश में
चाहे बाढ़ में चाहे बाँध में
कुछ न कुछ ज़रूर होगा संविधान में
बाबा ने कुछ न कुछ ज़रूर लिखा होगा
और अगर कुछ नहीं है तो
फिर किस बात के बाबा
और किस बात का संविधान

गण्डक के कगार पर खड़ा
यह सिसुआ मंगलपुर है
जहाँ फुलकली देवी रहती है
दबंगों के जबड़े से
हक़ की ज़मीन छीन लाई थी जो
अपने वीरतापूर्ण दिनों में पिछले साल
लेकिन आज रात क्या वह बचा सकती है
अपने सिसुआ मंगलपुर को गण्डक में डूबने से
जैसे डूब गए थे एक दिन
मैनेजरी बाज़ार, बैसिया बाज़ार
इस इलाके के हुआ करते थे जो
कभी सौदा सुलुफ़ के नामी हाट

जैसे डूब गए थे एक दिन
सिसुआ खाफटोला
पुजरा मल्लाह टोला
दादियों-परदादियों की कहानियों से भी
पुराने हुआ करते थे जो गाँव
जहाँ शाम होते ही
बच्चों के उठ रहे शोर के बीच
जनम लेने लगती थी अचानक
कोई प्रेम कहानी
चूडिय़ों के किसी रंग के पीछे से
फिर कहीं स्वप्नलोक की तरह गुम हो जाती थी
क्या पता कल दिन निकलते ही
सिसुआ मंगलपुर भी दर्ज कर लिया जाए
सरकार के रिकॉर्ड में बेचिरागी
और कई कहानियाँ ज़िन्दगी में उतरने से पहले ही
इस विप्लव में समा जाएँ

फुलकली देवी नहीं बचा पाएगी
अपने गाँव को डूबने से
उसके पीछे किसी की ताक़त नहीं है
न ठेकेदार की, न संविधान की
न अदालत की
तो क्या सर दोआब जी टाटा ट्रस्ट बचाएगा
गिरधारी करता है जिसका बखान
अपने गीतों में

कौन बचाएगा डूबने से
असंख्य अजन्मी प्रेम कहानियों को
फुलकली देवी की शौर्यगाथाओं को
इस बुरे वक़्त में
फुलकली देवी ख़ुद को बचा ले
यही बहुत है।