(1)
मन के
अँधियारों में जलती
एक दीप-सी तुम!
आँखों से छू लेती,
पोर-पोर में जैसे
फुलझड़ियाँ लिख देती
घोर अमावस
के पृष्ठों पर
चाँद-दीप-सी तुम!
बस्ती जब सो जाती,
याद तुम्हारी घर में
शहनाई-सी गाती
भीड़ भरे
इस कोलाहल में
मौन सीप-सी तुम!
(2)
दिए-सा
कब से जल रहा हूँ मैं,
तुम आओ!
चाहे हवा-सी आओ
और बुझा दो मुझे,
यह रंगीन आत्मघात
मंज़ूर है मुझे
क्योंकि
इस बहाने ही सही
तुम मुझे छुओगी तो!
(3)
मन के आकाश पर घिरते
अवसाद के अँधेरे में
तुम्हारी याद
अकसर
किसी पूनम के चाँद-सी
दबे पाँव आती है
और फिर सचमुच!
बे-मौसम
मेरी रग-रग
दीवाली हो जाती है।