फूलदानी से एक के बार एक
आयुक्षीण गुलाब की पँखड़ियाँ झड़-झड़ पड़ती है।
फूलों के जगत में
मृत्यु की विकृति नहीं देखता मैं।
करता नहीं शेष व्यंग्य जीवन पर असुन्दर।
जिस मिट्टी का ऋणी है।
अपनी घृणा से फूल करता नहीं अशुचि उसे,
रूप से गन्ध से लौटा देता है म्लान अवशेष को।
विदा का सकरुण स्पर्श है उसमें,
नहीं है मर्त्सना किश्चित् भी।
अन्मदिन और मरण दिन
दोनों जब होते मैं सम्मुखीन,
देखता हूं मानो उस मिलन में
पूर्वाचल और अस्ताचल में होती है
आँखें चार अवसन्न दिवस की,
समुज्ज्वल गौरव कैसा प्रणत सुन्दर अवसान है।
‘उदयन’
सायाह्न: 22 फरवरी, 1941