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फूलन / कर्मानंद आर्य

हजारो पेड़ रो रहे हैं, असमय झर रहे हैं उनके पत्ते
असमय सूख रही हैं उनकी डालें
बूढ़े तनो से उतर गई है काली चादर
वे रास्ते जिनके बगल में वे खड़े हैं
ढूंढते हैं एक स्त्री की आहट
एक स्त्री जिसने कभी सुनाया उन्हें अपना दुःख
कथा जाति की, व्यथा जीवन की

जो कुछ अस्थिर है, नश्वर है
जिसको ज्ञानी कहते हैं माया और अज्ञानी काया
यह कथा उसी काया से शुरू होकर
उस काया के अंतहीन होने तक चलती है

वस्तुतः यह कथा कथा नहीं केवल
दुःख से उपजा हुआ गान है
चुप्पी पर एक तगड़ा तमाचा
कविता के इतिहास में स्वयं पर सबसे सुन्दर व्यंग्य

यह कथा ब्राह्मणी लिपियों की नहीं
श्रेष्ठी और धनियों की नहीं
चौक पर काया बेचती उन स्त्रियों की नहीं जिन्हें तारा गया
बनारस के पंडो की नहीं
उन भ्रूणों की नहीं जिन्हें बथानी टोले में राख कर दिया गया
यह कथा बलिदान की है, इज्जत की है

अभी भी कांपता है चम्बल का बीहड़
जब एक लड़की चीखती है
जब एक स्त्री की छातियों को मसल दिया जाता है
जब अनाथ हो आती हैं सदायें
जब सूनी आँखों में तार-तार बिखरता है सिंदूर
तब जब चम्बल स्वयं के किये पर काँपता है
उसे याद आती हैं अपनी फूल सी बेटियां

जब एक मछुआरा आत्महत्या कर लेता है
जब एक कुम्हार काम से अधिक अपनी बेटी की फ़िक्र में
लगातार पकाता है अपनी आँखें
जब आती हुई बनिहारिन की अस्मत लूट लेते हैं पुलिसकर्मी
जब समाज के सबसे निचले आदमी को
काट डालती है अदालत
जब संसद के तमाशबीन रत होते हैं जुए में
तब जब बीहड़ में छटपटाती है नन्ही जान
तब पेड़ों के रोने की आवाज आराम से सुनी जा सकती है
अपनी बेटियों के रुदन में

माला सेन लिखती हैं
एक स्त्री की आत्मकहानी
लिखते लिखते टूट जाती है जिनकी कलम
सोचते सोचते जो रो पड़ती हैं अपनी किताबों में
और जिनके आंसुओं में छिपी है
एक मटमैली औरत की करुण व्यथा
उस कहानी के बारे में सोचते हैं पेड़ भी
रोते हैं पेड़ भी

बेहमई बेशरम की तरह देखता है अपनी संतानों को
अपनी बेटियों को निहारता है
अपनी पत्नियों को अट्टहास करने छोड़ देता है
अपने बुड्ढों को परखता है
अपने खून पर हिनहिनाता है
बेशर्मी का समय कथकली में बदल जाता है