फूलों की घाटी में बजता
कानफोड़ सन्नाटा ।
बीच-बीच में यहाँ-वहाँ से
उभर डूबती चीख़ें
डस लेती लिप्सा की नागिन
जो पराग पल दीखें
आदमक़द आकाश का
होता जाता नाटा ।
नदियों-झीलों-झरनों में जा
डूब मरीं मुस्कानें
शोक-धुनों में बदल रही हैं
उत्सव- धर्मी तानें
सन्तूरी सम्मोहन टूटा
चुभता बनकर काँटा ।